भारतीय संविधान (Constitution of India)

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भारतीय संविधान (Constitution of India)
भारतीय संविधान अपने तत्वों और भावना में अद्वितीय है. हालांकि कहने के लिए, इस बनाने के लिए दुनिया के लगभग हर संविधान से कुछ न कुछ उधार लिया गया है. फिर भी, इसकी कुछ विशेषताएं हैं जो इसे अन्य देशों के सविधान से अलग करती हैं.

इस विषय पर बात करने से पहले, हमे यह समझ लेना चाहिए कि संविधान की कई मूल विशेषताओं (1949 में अपनाई गई) में कई संशोधनों के कारण एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है. खासकर 7 वें, 42 वें, 44 वें, 73 वें, 74 वें और 97 वें संशोधन के कारण. 42 वें संशोधन अधिनियम (1976) को संविधान के विभिन्न हिस्सों में इसके द्वारा महत्वपूर्ण और बड़ी संख्या में किए गए परिवर्तनों के कारण 'मिनी-संविधान' के रूप में जाना जाता है. हलांकि, केसवानंद भारती केस (1973) में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया हैं कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद की घटक शक्ति संविधान के 'मूल ढांचे' को बदलने में सक्षम नहीं है.

भारतीय सविधान की प्रमुख विशेषताएं
1.    विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान
भारत का संविधान दुनिया के सभी लिखित संविधानों में सबसे लंबा है. यह एक बहुत व्यापक और विस्तृत दस्तावेज है. मूल रूप से (1949), संविधान में एक प्रस्तावना, 395 लेख (22 भागों में विभाजित) और 8 अनुसूचियां थीं. वर्तमान में (2016), इसमें एक प्रस्तावना, 465 लेख (25 भागों में विभाजित) और 12 अनुसूचियां शामिल हैं. भारतीय सविधान में 1951 से विभिन्न संशोधनों के द्वारा लगभग 20 लेखों और एक भाग (VII) को हटा दिया है और वही दूसरी तरफ, 90 लेखों, चार भागों (IVA, IXA, IXB और XIVA) और चार अनुसूचियों (9, 10, 11 और 12) को जोड़ा है.

इसके विस्तृत के चार कारक माने जा सकते है.
1.    भूगोल, अर्थात देश की विशालता और उसकी विविधता.
2.    इतिहास, जैसे, 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव.
3.    जम्मू और कश्मीर को छोड़कर केंद्र और राज्यों दोनों के लिए एकल संविधान.
4.    संविधान सभा में कानूनी विशेषको का प्रभाव.

भारतीय संविधान में न केवल शासन के मूलभूत सिद्धांत शामिल हैं बल्कि विस्तृत प्रशासनिक प्रावधान भी जोड़े गए हैं. इसके अलावा, जिन मामलों को अन्य आधुनिक लोकतांत्रिक देश सामान्य कानून और जन चेतना पर छोड़ देते हैं उन्हें भी भारतीय सविधान में शामिल किया गया है.

2.    विभिन्न स्रोतों से खीचा गया.
भारत का संविधान बीआर अंबेडकर के शब्दों में दुनिया के सभी सविधानो को छान कर बनाया गया हैं.
इसका संरचनात्मक हिस्सा, काफी हद तक, भारत सरकार अधिनियम 1935 से लिया गया है. संविधान का दार्शनिक भाग (मौलिक अधिकार और राज्य के नीति और निर्देशक सिद्धांत) अमेरिकी और आयरिश सविधान से लिए गए हैं क्रमशः इसका राजनीतिक हिस्सा (संघीय सरकार का सिद्धांत और कार्यपालिका और विधायिका के बीच के संबंध) ब्रिटिश संविधान से लिए गए हैं.

संविधान के अन्य प्रावधानों को कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएसएसआर (अब रूस), फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका, जापान आदि के सविधानो से लिया गया है.

3. कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण
भारतीय सविधान को कठोर और लचीले हिस्से में बाटा जा सकता है. संविधान का कठोर हिस्सा वह है जिसके संशोधन के लिए एक विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है. और दूसरी ओर, इसका लचीला हिस्सा वो है जिसे किसी सामान्य कानून की तरह संशोधित किया जा सकता है. अनुच्छेद 368 दो प्रकार के संशोधनों का प्रावधान है:

(क) कुछ प्रावधानों को संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधित किया जा सकता है, अर्थात, दोनों सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत, और प्रत्येक सदन में बहुमत.
(बी) कुछ अन्य प्रावधानों को संसद के विशेष बहुमत और आधे से ज्यादा राज्यों के समर्थन के साथ संशोधित किया जा सकता है.

इसके अलावा, संविधान के कुछ प्रावधानों को साधारण विधायी प्रक्रिया के तरीके से संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधित किया जा सकते है. ये संशोधन अनुच्छेद 368 के तहत नहीं आते हैं.

4. संघ के प्रति झुकाव
भारत का संविधान संघीय सरकार को स्थापित करता है. इसमें संघ की सभी विशेषताएं समाहित हैं -- दो सरकार, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्र न्यायपालिका और द्विसदनीयता की.

इन सबके बावजूद, भारतीय संविधान में बड़ी संख्या में एकात्मक या गैर-संघीय विशेषताएं शामिल हैं, मतलब, एक मजबूत केंद्र, एकल संविधान, एकल नागरिकता, संविधान का लचीलापन, एकीकृत न्यायपालिका, केंद्र द्वारा राज्य राज्यपाल की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाएं, आपातकालीन प्रावधान, इत्यादि.

भारतीय संविधान में 'फेडरेशन' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. दूसरी ओर, सविधान के अनुच्छेद 1 में भारत को एक 'राज्यों के संघ' के रूप में वर्णित करता है, जो दो बातें दर्शाता है: पहला, भारतीय संघ राज्यों द्वारा एक समझौते का परिणाम नहीं है; और दूसरा, किसी भी राज्य को महासंघ से अलग होने का अधिकार नहीं है.

5. सरकार का संसदीय रूप
भारत के संविधान ने अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली के बजाय सरकार के ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का विकल्प चुना है. संसदीय प्रणाली विधायी और कार्यकारी अंगों के बीच सहयोग और समन्वय के सिद्धांत पर आधारित है जबकि राष्ट्रपति प्रणाली दो अंगों के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित है. संसदीय प्रणाली को 'वेस्टमिंस्टर मॉडल’ के नाम में भी जाना जाता है. भारतीय संविधान न केवल केंद्र में बल्कि राज्यों में भी संसदीय प्रणाली स्थापित करता है. भारत में संसदीय प्रणाली की विशेषताएं हैं:

(क)    नाममात्र और वास्तविक अधिकारियों की उपस्थिति;
(ख)    बहुमत वाले दल का शासन,
(ग)    विधायिका के आगे कार्यपालिका की सामूहिक जवाबदेही,
(घ)    विधायिका में मंत्रियों की सदस्यता,
(ङ)    प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व,
(च)    निचले सदन (लोकसभा या विधानसभा) का विघटन

भले ही भारतीय संसदीय प्रणाली काफी हद तक ब्रिटिश प्रणाली पर आधारित है, लेकिन इन दोनों के बीच कुछ बुनियादी अंतर हैं. उदाहरण के लिए, भारतीय संसद ब्रिटिश संसद की तरह एक संप्रभु संस्था नहीं है. इसके अलावा, भारत में एक निर्वाचित प्रमुख राष्ट्रपति (गणतंत्र) होता है जबकि ब्रिटेन में वंशानुगत प्रमुख (राजशाही) होता है.

एक संसदीय प्रणाली प्रधानमंत्री की भूमिका एहम होती है. इसलिए कई राजनीतिक वैज्ञानिक इसे 'प्रधानमंत्री सरकार' कहना पसंद करते हैं.

6. संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता
संसद की संप्रभुता का सिद्धांत ब्रिटिश संसद से लिया गया है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक वर्चस्व का सिद्धांत अमेरिका से लिया गया हैं. जिस तरह, भारतीय संसदीय प्रणाली ब्रिटिश प्रणाली से भिन्न है, भारत में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति का दायरा अमेरिका में मौजूद प्रणाली से भिन्न है. अमेरिकी व्यवस्था में 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' का प्रावधान हैं, वही भारत में “क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” (अनुच्छेद 21) का प्रावधान हैं. इसलिए, भारतीय संविधान निर्माताओं ने संसदीय संप्रभुता के ब्रिटिश सिद्धांत और न्यायिक वर्चस्व के अमेरिकी सिद्धांत के बीच एक संतुलन बनाने को प्राथमिकता दी. सर्वोच्च न्यायालय, एक ओर, अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति के माध्यम से संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है. वही दूसरी ओर, संसद अपने घटक शक्ति के माध्यम से संविधान के प्रमुख हिस्से में संशोधन कर सकती है.

7. एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका
भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायिक प्रणाली की स्थापना करता है जो एकीकृत होने के साथ स्वतंत्र है. उच्चतम न्यायलय देश में एकीकृत न्यायिक प्रणाली में सबसे ऊपर है. इसके नीचे, राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं. एक उच्च न्यायालय के अधीन जिला अदालतों और अन्य निचली अदालतों का एक पदानुक्रम है. अदालतों की यह एकल प्रणाली संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत, जहां केंद्रीय कानूनों को संघीय न्यायपालिका द्वारा लागू किया जाता है और राज्य कानूनों को राज्य न्यायपालिका द्वारा लागू किया जाता है, दोनों केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य कानूनों को भी लागू करता है.

भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक संघीय अदालत हैं. यह भारत की शीर्ष अदालत हैं. यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का गारंटर और संविधान का संरक्षक है. इसलिए, संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कई प्रावधान किए हैं - न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा, न्यायाधीशों के लिए निश्चित सेवा शर्तें, भारत के संचित निधि से सर्वोच्च न्यायालय के सभी खर्च, विधायिकाओ में न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा पर रोक, न्यायधिशो की सेवानिवृत्ति के बाद अभ्यास पर प्रतिबंध, दंडित करने की शक्ति, न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना और इसी तरह.

8.    मौलिक अधिकार
भारतीय संविधान का मौलिक अधिकार भाग (Part III) भारत के सभी नागरिकों को छह मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है:

(क)    समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14—18),
(ख)    स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19—22),
(ग)    शोषण के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 23-24),
(घ)    धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25—28),
(ङ)    सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29—30),
(च)    संवैधानिक उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 32).

मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतंत्र के विचार को बढ़ावा देते हैं. वे विधायिका के मनमाने कानूनों पर अंकुश लगाने का काम करते हैं. ये स्वभाव से न्यायसंगत हैं, अर्थात इनके उल्लंघन पर पीड़ित अदालतों का सहारा ले सकता हैं. वे सीधे सर्वोच्च न्यायलय भी जा सकता है, जो मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, अधिकार प्रच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है. हालाँकि, इन्हें संसद संवैधानिक संशोधन अधिनियम के माध्यम से संसद रद्द या निरस्त कर सकती है. इन्हें राष्ट्रीय आपातकाल के संचालन के दौरान निलंबित भी किया जा सकता है (अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदत अधिकारों को छोड़कर).

9.    राज्य के निति-निदेशक सिद्धांत
बीआर अंबेडकर के अनुसार, राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत, भारतीय सविधान की एक अनूठी विशेषता है. इनका उल्लेख संविधान के भाग IV में किया गया है. हम इन्हें तीन व्यापक श्रेणियों में बाट सकते है. 1. समाजवादी, 2. गांधीवादी और 3. उदार-बौद्धिक.

ये सिद्धांत सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श को बढ़ावा देने के लिए हैं. इनका उद्देश्य भारत में एक 'कल्याणकारी राज्य' स्थापित करना हैं. हालांकि, ये सिद्धांत भी मौलिक अधिकारों की तरह, नीतिगत हैं और अपनी शक्ति जनमत से पाते हैं. अर्थात्, इनके उल्लंघन पर इन्हें अदालतों लागू करने में अक्षम हैं. फिर भी, भारतीय संविधान घोषित करता है कि किसी भी कानून को बनाने के लिए राज्य को मौलिक अधिकार और निति-निदेशक  सिधान्तो का पालन करना चाहिए.

मिनर्वा मिल्स केस (1980) में, उच्चतम न्यायलय ने कहा कि 'भारतीय संविधान की स्थापना मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन के आधार पर की गई है.'

10.    मौलिक कर्तव्य
1949 के मूल संविधान में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों के लिए प्रावधान नहीं था. इन्हें स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर 1976 के 42 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा आंतरिक आपातकाल (1975-77) के संचालन के दौरान जोड़ा गया था. इसके बाद, 2002 के 86 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने एक और मौलिक कर्तव्य जोड़ा.

ये संविधान का भाग IV-A हिस्सा हैं, जिसमें केवल एक अनुच्छेद- 51-A शामिल है और ये ग्यारह मौलिक कर्तव्यों को निर्दिष्ट करता है. उदहारण के लिए, संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना; देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा के लिए प्रयत्न करना; सभी लोगों में सामान्य भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना; हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को संरक्षित करना.

मौलिक कर्तव्यों नागरिकों के लिए एक अनुस्मारक के रूप में काम करते हैं. ये उन्हें अपने अधिकारों का आनंद लेते हुए, देश, अपने समाज और अपने साथी नागरिकों के प्रति उनके कर्तव्यों के लिए सचेत रखते हैं. हालांकि, इन्हें भी निर्देशक सिद्धांतों की तरह किसी सख्ती से थोपा नहीं जा सकता हैं.

11.    धर्मनिरपेक्षता
भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का पक्षधर है. इसलिए यह किसी भी धर्म विशेष को आधिकारिक रूप से कोई मान्यता नहीं देता है. संविधान में पहली बार 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को 1976 के 42 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया था.

भारतीय सविधान के कुछ अनुच्छेद जो भारतीय सविधान के धर्मनिरपेक्ष होने के लक्षण दिखाते हैं.
1.    राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा (अनुच्छेद 14).
2.    राज्य धर्म के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगा (अनुच्छेद 15).
3.    सार्वजनिक सेवाओ के मामलों में सभी नागरिकों को समान अवसर (अनुच्छेद 16).
4.    हर व्यक्ति को समान रूप से किसी भी धर्म को अपनाने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार हैं. (अनुच्छेद 25)
5.    हर धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी हिस्से को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार होगा (अनुच्छेद 26).
6.    किसी भी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष के प्रचार के लिए कोई कर नहीं देना होगा. (अनुच्छेद 27.).
7.    किसी भी राजकीय शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक निर्देश नहीं दिया जाएगा (अनुच्छेद 28).
8.    नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण का अधिकार होगा. (अनुच्छेद 29)
9.    सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा (अनुच्छेद 30).
10.    राज्य सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने की कोशिश करेगी. (अनुच्छेद 44)

इसके अलावा, संविधान ने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व अर्थात धर्म के आधार पर आरक्षण की प्रणाली को समाप्त कर दिया है. हालाँकि, यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों का अस्थायी आरक्षण प्रदान करता है ताकि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल सके.

12.    सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार
भारतीय संविधान लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों के आधार पर सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को अपनाता है. प्रत्येक नागरिक जो 18 वर्ष से कम आयु का नहीं है, उसे जाति, नस्ल, धर्म, लिंग, साक्षरता, धन और किसी भी भेदभाव के बिना वोट देने का अधिकार है. 1989 के 61 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा 1989 में 21 वर्ष से 18 वर्ष तक की मतदान आयु को कम किया गया था.

संविधान निर्माताओं द्वारा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का परिचय एक साहसिक प्रयोग था और देश के विशाल आकार को देखते हुए अत्यधिक उल्लेखनीय था, इसकी विशाल जनसंख्या, उच्च गरीबी, सामाजिक असमानता और भारी अशिक्षा.

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लोकतंत्र को व्यापक-आधारित बनाता है, आम लोगों के आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा को बढ़ाता है, समानता के सिद्धांत को बढ़ाता है, अल्पसंख्यकों को उनके हितों की रक्षा करने में सक्षम बनाता है और कमजोर वर्गों के लिए नई आशाएं और अस्तित्व खोलता है.

13.    एकल नागरिकता
हालांकि भारतीय सविधान एक दोहरे राजनैतिक तंत्र (केंद्र और राज्यों) की परिकल्पना करता है, लेकिन यह केवल एक ही नागरिकता यानी भारतीय नागरिकता प्रदान करता है.

दूसरी ओर, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में हर व्यक्ति न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक है, बल्कि उस विशेष राज्य का नागरिक भी है जिससे वह संबंधित है. इस प्रकार, वहा पर दोहरी नागरिकता का प्रचलन है एक राष्ट्रीय सरकार द्वारा और दूसरा राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त नागरिकता.

इसके उल्ट, भारत में चाहे वे किसी भी राज्य में पैदा हुए हों या निवास करते हों, देश के सभी नागरिक पूरे देश में नागरिकता के समान राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का आनंद लेते है. उनके बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता है (हलांकि कुछ आदिवासी क्षेत्रों और जम्मू और कश्मीर इसके अपवाद हैं).

14. स्वतंत्र निकाय
भारतीय संविधान न केवल सरकार (केंद्र और राज्य) के विधायी, कार्यकारी और न्यायिक अंगों के लिए प्रदान करता है, बल्कि यह कुछ और स्वतंत्र निकायों की स्थापना करता है. य़े हैं,
1.    संसद, राज्य विधानसभाओं, भारत के राष्ट्रपति के कार्यालय और भारत के उपराष्ट्रपति के कार्यालय के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग.
2.    केंद्र और राज्य सरकारों के खातों की समीक्षा के लिए भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक. यह जनता के पैसे के संरक्षक के रूप में काम करता है और सरकारी व्यय की वैधता पर टिप्पणी करता है.
3.    संघ लोक सेवा आयोग, जो अखिल भारतीय सेवाओं और उच्चतर केंद्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए परीक्षा आयोजित करता हैं और राष्ट्रपति को अनुशासनात्मक मामलों पर सलाह देता हैं.
4.    राज्य सेवाओं में भर्ती के लिए परीक्षा आयोजित करने और अनुशासनात्मक मामलों पर राज्यपाल को सलाह देने के लिए हर राज्य में राज्य लोक सेवा आयोग.

भारत का संविधान इन निकायों की विभिन्न प्रावधानों जैसे कार्यकाल की सुरक्षा, निश्चित सेवा शर्तों, भारत की संचित निधि पर भारित खर्चों और इसी तरह के बाकी मामलो में सुरक्षा सुनिश्चित करता है.

15. आपातकालीन प्रावधान
भारतीय संविधान ने किसी भी आपातकालीन स्थिति को प्रभावी ढंग से निपटने के लिए राष्ट्रपति को शक्तिया दी हैं. इन शक्तियों को शामिल करने के पीछे तर्कसंगतता देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की रक्षा करना है.

संविधान तीन प्रकार की आपात स्थितियों की परिकल्पना करता है, अर्थात्:
1.    युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)
2.    राज्यों में संवैधानिक मशीनरी की विफलता (अनुच्छेद 356) या केंद्र के निर्देशों का पालन करने में विफलता के आधार पर राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 365)
3.    भारत की वित्तीय स्थिरता पर खतरा होने से (अनुच्छेद 360).

आपातकाल के दौरान, केंद्र सरकार सर्व-शक्तिशाली हो जाती है और राज्य केंद्र के कुल नियंत्रण में चले जाते हैं. यह संविधान की औपचारिक संशोधन के बिना संघीय ढांचे को एकात्मक में परिवर्तित करता है. संघीय (सामान्य समय के दौरान) से एकात्मक (आपातकाल के दौरान) तक राजनीतिक व्यवस्था का इस तरह का परिवर्तन भारतीय संविधान की एक अनूठी विशेषता है.

16. त्रिस्तरीय सरकार
मूल रूप से, भारतीय संविधान, किसी भी अन्य संघीय संविधान की तरह, एक दोहरी राज्य व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था. मगर बाद में, 73 वें और 74 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियमों (1992) ने सरकार के तीसरे स्तर को जोड़ा है जो दुनिया के किसी भी अन्य संविधान में नहीं पाया जाता है.

1992 के 73वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में एक नया भाग IX और एक नई अनुसूची (11 वी) जोड़कर पंचायतों (ग्रामीण स्थानीय सरकारों) को संवैधानिक मान्यता दी. ठीक इस तरह, 1992 के 74वें संशोधन अधिनियम ने नगरपालिकाओं (शहरी स्थानीय सरकारों) को एक नया भाग IX-A और संविधान में एक नई अनुसूची (12 वी) जोड़कर संवैधानिक मान्यता दी.

17. सहकारी समितियाँ
2011 के 97वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा और संरक्षण दिया. इस संदर्भ में, इसने संविधान में निम्नलिखित तीन बदलाव किए गए:
1. इसने सहकारी समितियों बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया (अनुच्छेद 19).
2. इसने सहकारी समितियों को बढ़ावा देने के लिए एक नया निधेशक जोड़ा (अनुच्छेद 43-बी).
3. इसने संविधान में एक नया भाग IX-B जोड़ा.

संविधान की आलोचना
भारतीय संविधान के मूल प्रारूप की आलोचना निम्नलिखित अधारो पर की जाती हैं.

1. एक उधार का संविधान
कई आलोचकों कहते हैं कि भारतीय संविधान में कुछ नया और मौलिक नहीं है. उन्होंने इसे 'उधार संविधान' या 'उधार का बैग' या 'हॉट-पोच संविधान' या एक 'पैचवर्क' के रूप में वर्णित किया.

2. भारत सरकार अधिनियम 1935 की कार्बन कॉपी
संविधान निर्माताओं ने बड़ी संख्या में भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधानों को भारत के संविधान में शामिल किया है. इसलिए कई आलोचकों ने भारतीय संविधान को “1935 अधिनियम की कार्बन कॉपी" या "1935 अधिनियम का संशोधित संस्करण" कहा हैं.

3. अभारतीय
आलोचकों के अनुसार, भारतीय संविधान भारत विरोधी भावना से भरा हुआ है क्योंकि यह भारतीय राजनीतिक परंपराओं और भावना को नहीं दर्शाता. कई आलोचक इस सविधान के रास्ते पर चलने से भारत के बिखरने की बात तक कर गए. मगर आज हम अपना 70 वा गणतंत्र दिवस बनाने जा रहे हैं.

4. गैर-गांधीवादी
आलोचकों के अनुसार, भारतीय संविधान का मूल स्वरुप गैर गांधीवादी है. वे सविधान में भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शो का अभाव मानते हैं. उन्होंने कहा कि संविधान को ग्राम पंचायतों और जिला पंचायतों के जरुरत के आधार पर बनना चाहिए था.

5. महाकाय आकार
कई आलोचकों कहते हैं कि भारतीय संविधान बहुत बड़ा और विस्तृत है. इसमें कुछ तत्व बिलकुल अनावश्यक हैं.

6. वकीलों का स्वर्ग
आलोचकों के अनुसार, भारतीय संविधान की भाषा बहुत जटिल है, और कई तकनिकी शब्दों से भरी हैं. उन्होंने कहा कि संविधान में अपनाई गई कानूनी भाषा और वाक्यांश इसे एक जटिल दस्तावेज बनाता है.

7. अत्यधिक केंद्रीकरण
कई आलोचक भारतीय सविधान को केंद्र की तरफ अधिक झुका हुआ मानते हैं. वे कहते हैं कि सारी उपरोक्त शक्तिया सिर्फ केंद्र सरकार के हाथ में हैं, और केंद्र आपातकालीन प्रावधान का गलत इस्तेमाल कर राज्य की शक्तिया हड़प सकता हैं.

हालाँकि, यह सब आलोचनाए अनुचित, पक्षपातपूर्ण और अतार्किक लगती है. हम ऐसा इसलिए कह सकते है, क्योंकि संविधान के निर्माताओं ने भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल होने पर इन प्रावधानों को, इनकी कमियों को दूर हटाते हुए चुना.
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